Saturday, February 28, 2015

होली के दम तोडत परम्परा

अगर इ कहल जा की आज होली आपन रूप बदलत बा त कवनों अतिश्योक्ति ना होई | सामुदायिक पहचान रख्खे वाला इ त्यौहार आज धीरे-धीरे जाती अउर समूह के बीच में बंटत जात बा भारत में होली के स्वरूप बदल रहल बा, एकर पुरान परम्परा सब ख़तम होता |


फगुआ गावत लोग


पहिले भोजपुरी समाज में फागुन के महिना चढ़ते ही वातावरण में होली के रंगीला और सुरीला तान सुनाई देवे लागे, भोजपुरी में एके फाग या फगुआ कहल जात रहे | बकायदा महीना भर पहिले से ही एकर महफ़िल जमत रहे | दिन भर खेत में काम कर के थकल गाँव के लोग जब शाम के ढोल और मजीरा लेके फगुआ के राग छेड़ें त सब थकान उतर जा, बस गाँवे में ही काहें शहरो में भी इहे हाल रहे | अब समय के कमी, बदलत जीवन शैली अउर कई अन्य वजह से शहर के कहे गाँव में भी इ परम्परा ना दिखाई देला | होली के मउका पर शहर में महामूर्ख सम्मेलन के आयोजन होखे अउर अखबार में नामी-गिरामी लोगन के अजीब-अजीब उपाधि दिहल जा जवने के मतलब बस लोगन के हंसावल रहे | कई नामी लोग त अपने उपाधि से खुश होके उपाधि देवे वाला के इनाम भी दें | लेकिन समय के साथ अब इहो परम्परा दम तोडत बा |

पलाश, सरसों के फूल अउर पछुआ हवा (पश्चिम दिशा से चले वाला हवा) के अलसायिल ठंडक से फागुन के पता माघ में ही चलत रहे | कुछ साल पहिले तक त माघ महिना से शुरू होखे वाला फागुन आज आपन अंदाज बदल लेहले बा | गाँव में माघ में ही मिले वाला फागुन के आहट आज के एह व्यस्त दौर में बिला गईल बा, अब त फागुन में भी उ महफ़िल ना सजत ह जवन की पहिले माघ में ही सजल शुरू हो जा | फागुन में ही शहर से लेके गाँव तक में सुनाई देवे वाला ढोलक के थाप अउर फाग के राग के सुने खातिर आज कान तरस जाला |

पहिले होली के दिने नौजवानन के घुम्मे वाला टोली अउर घरे-घरे जा के फगुआ गावे के परम्परा अब त दिखाई भी न देत ह | फगुआ गवले के बाद मिले वाला रंग, अबीर अउर खाए खातिर मालपुआ अब के नौजवान कहाँ पइहें | एह सब परम्परा के दम तोडले के कारन आज कुछ लोग आपस में बढ़त दुश्मनी, भेदभाव और वैमनस्य के मानत हवें त कुछ लोग पश्चिमी परम्परा के हावी होखल मानत हवें |

सिवान (बिहार) जिला के फगुआ गायक श्री रामेश्वर प्रसाद एगो अखबार में कहले रहने की प्रेम अउर सौहार्द के इ त्यौहार में लोग दुश्मन के भी गले लग जात रहने, पहिले एक महिना तक चले वाला होली प्यार के त्यौहार रहे | गाँव भर के लोग एक जगह इकठ्ठा होके होली के हुडदंग में मस्त हो जात रहने | गाँव में एक महिना तक ढोल अउर मंजीरा बाजत रहे | फगुआ के गीतन में पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, देवर-भाभी के रिश्तन में हास्य दिहल जा त धार्मिक गीत के भी शामिल कईल जात रहे | लेकिन अब गायन की इ परंपरा खतम होत जा रहल बा | अब इनकरे जगह फूहड़ गीत बजे लागल बा | लेकिन अब एक दुसरे से ताल मेल के आभाव, क़द्रदानन के कमी अउर तेज होत पलायन के चलते इ पूरान परम्परा अब दम तोडत बा | युवा पीढ़ी के त अब फगुआ के बोल भी नइखे याद |” अब हम दुसरे के का कहीं फगुआ के बोल त हमहू के नइखे याद |

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला के श्री सुभाष चन्द्र सिंह जी कहत हवें "अब लोगन में प्रेम के भावना ही नइखे | लोग टीवी से चिपकल रहत हवे | पहिले गाँव में चौपाल से होली खेले खातिर निकले वाले टोली में बुढा-बुजुर्ग से लेके गाँव के युवा तक रहे | इ टोली सामाजिक एकता के मिशाल रहत रहे | केतना हंसी मजाक होखे गाँव के भाभी से लेके भाभी के बहिन तक से,जीजा से लेके साली तक से, लेकिन ओम्मे एगो सम्मान और लिहाज भी रहे | का मजाल रहे कि केहू अनाप-शनाप कहे | लेकिन आज त सब ख़तम होत जात बा | होली के दिन भंग अउर ठंडई बडहन-बडहन बर्तन में घोलल जा अउर जात-पांत से ऊपर उठ के हर आदमी ओकर सेवन करे | अब त जात-पांत के भावना सतह पर आ गईल बा अउर भंग और ठंढई के जगह अंग्रेजी शराब ले लेहले बा |”


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