अगर इ कहल जा की आज होली आपन रूप बदलत बा त कवनों अतिश्योक्ति ना होई | सामुदायिक पहचान रख्खे वाला इ त्यौहार
आज धीरे-धीरे जाती अउर समूह के बीच में बंटत जात बा भारत में होली के स्वरूप बदल रहल
बा, एकर पुरान परम्परा सब ख़तम होता |
फगुआ गावत लोग |
पहिले भोजपुरी समाज में फागुन के महिना चढ़ते ही वातावरण में होली के रंगीला और
सुरीला तान सुनाई देवे लागे, भोजपुरी में एके फाग या फगुआ कहल जात रहे | बकायदा महीना भर पहिले से ही एकर महफ़िल जमत रहे | दिन भर खेत में काम कर के थकल गाँव
के लोग जब शाम के ढोल और मजीरा लेके फगुआ के राग छेड़ें त सब थकान उतर जा, बस गाँवे में ही काहें शहरो में
भी इहे हाल रहे | अब समय के कमी, बदलत जीवन शैली अउर कई अन्य वजह से शहर के कहे गाँव में भी इ परम्परा ना दिखाई
देला | होली के मउका पर शहर में महामूर्ख
सम्मेलन के आयोजन होखे अउर अखबार में नामी-गिरामी लोगन के अजीब-अजीब उपाधि दिहल जा
जवने के मतलब बस लोगन के हंसावल रहे | कई नामी लोग त अपने उपाधि से खुश होके उपाधि देवे वाला के इनाम भी दें | लेकिन समय के साथ अब इहो परम्परा
दम तोडत बा |
पलाश, सरसों के फूल अउर पछुआ हवा (पश्चिम
दिशा से चले वाला हवा) के अलसायिल ठंडक से फागुन के पता माघ में ही चलत रहे | कुछ साल पहिले तक त माघ महिना से
शुरू होखे वाला फागुन आज आपन अंदाज बदल लेहले बा | गाँव में माघ में ही मिले वाला फागुन
के आहट आज के एह व्यस्त दौर में बिला गईल बा, अब त फागुन में भी उ महफ़िल ना सजत ह जवन की पहिले माघ में ही सजल शुरू हो जा | फागुन में ही शहर से लेके गाँव तक
में सुनाई देवे वाला ढोलक के थाप अउर फाग के राग के सुने खातिर आज कान तरस जाला |
पहिले होली के दिने नौजवानन के घुम्मे वाला टोली अउर घरे-घरे जा के फगुआ गावे के
परम्परा अब त दिखाई भी न देत ह | फगुआ गवले के बाद मिले वाला रंग, अबीर अउर खाए खातिर मालपुआ अब के नौजवान कहाँ पइहें | एह सब परम्परा के दम तोडले के कारन
आज कुछ लोग आपस में बढ़त दुश्मनी, भेदभाव और वैमनस्य के मानत हवें त कुछ लोग पश्चिमी परम्परा के हावी होखल मानत हवें
|
सिवान (बिहार) जिला के फगुआ गायक श्री रामेश्वर प्रसाद एगो अखबार में कहले रहने
की “प्रेम अउर सौहार्द के इ त्यौहार
में लोग दुश्मन के भी गले लग जात रहने, पहिले एक महिना तक चले वाला होली प्यार के त्यौहार रहे | गाँव भर के लोग एक जगह इकठ्ठा होके
होली के हुडदंग में मस्त हो जात रहने | गाँव में एक महिना तक ढोल अउर मंजीरा बाजत रहे | फगुआ के गीतन में पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, देवर-भाभी के रिश्तन में हास्य दिहल
जा त धार्मिक गीत के भी शामिल कईल जात रहे | लेकिन अब गायन की इ परंपरा खतम होत जा रहल बा | अब इनकरे जगह फूहड़ गीत बजे लागल
बा | लेकिन अब एक दुसरे से ताल मेल के
आभाव, क़द्रदानन के कमी अउर तेज होत पलायन
के चलते इ पूरान परम्परा अब दम तोडत बा | युवा पीढ़ी के त अब फगुआ के बोल भी नइखे याद |” अब हम दुसरे के का कहीं फगुआ के
बोल त हमहू के नइखे याद |
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला के श्री सुभाष चन्द्र सिंह जी कहत हवें "अब
लोगन में प्रेम के भावना ही नइखे | लोग टीवी से चिपकल रहत हवे | पहिले गाँव में चौपाल से होली खेले खातिर निकले वाले टोली में बुढा-बुजुर्ग से
लेके गाँव के युवा तक रहे | इ टोली सामाजिक एकता के मिशाल रहत रहे | केतना हंसी मजाक होखे गाँव के भाभी से लेके भाभी के बहिन तक से,जीजा से लेके साली तक से, लेकिन ओम्मे एगो सम्मान और लिहाज
भी रहे | का मजाल रहे कि केहू अनाप-शनाप कहे
| लेकिन आज त सब ख़तम होत जात बा | होली के दिन भंग अउर ठंडई बडहन-बडहन
बर्तन में घोलल जा अउर जात-पांत से ऊपर उठ के हर आदमी ओकर सेवन करे | अब त जात-पांत के भावना सतह पर आ
गईल बा अउर भंग और ठंढई के जगह अंग्रेजी शराब ले लेहले बा |”
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