तरकुलहाँ देवी |
१८५७ के
स्वतंत्रता संग्राम से पहिले के बात ह, ओह समय
एह इलाका से गुर्रा नदी होके गुजरत रहे, जंगल
एतना भयंकर कि दिन में भी सूरज के प्रकाश ना दिखे, एह जंगल
से होके गुजरे खातिर आम लोग-बाग़ त डेराईबे करे साथै-साथ अंग्रेज के सिपाही भी डेरा, एही जंगल
में डुमरी रियासत के बाबु बंधू सिंह रहत रहें | नदी के
किनारे तरकुल के ढेर सारा पेड़ रहे, ओही पेड़न
के नीचे बाबु बंधू सिंह माटी के पिंडी बना के अपने इष्ट देवी के पूजा करत रहनें, एही से
एह जगह के नाम तरकुलहाँ देवी के नाम से पूरा भारत में प्रसिद्ध हो गईल | अंग्रेजन
के अत्याचार दिन पर दिन बढ़त जात रहे, जनता आपन
घर-बार छोड़ के जंगल में पनाह लेवे लागल रहे | बाबु
बंधू सिंह बचपन से ही अंग्रेजन के अत्याचार देखत चली आईल रहने, उनके दिल
में अंग्रेजन के खिलाफ नफ़रत पैदा हो गईल रहे, एह लिए उ
लड़ाई के हर विधि सीखत रहने की समय आयिले पर अंग्रेजन से आपन जनता पर होत अत्याचार
के बदला ले सकें, धीरे-धीरे बाबु साहब
गुरिल्ला लड़ाई में माहिर हो गईलें और जब बढ़हन हो गईलें त आपन रियासत छोड़ के गोरखपुर
से २५ किलोमीटर दूर चौरी-चौरा के पास के जंगलन में चली आईने, एहंवे उ
अपने इष्ट देवी के पूजा करे लगने और जइसे ही मौका पावें अंग्रेजन पर अकेले हमला कर
दें, उनकर शिकार उ अंग्रेज
होंखें जवन ओह जंगल में आवें चाहे ओसे होके गुजरें | बाबु
साहब न बस ओ अंग्रेजन के मरबे करीं बल्कि उनकर सर काट के अपने इष्ट देवी के चरण
में अर्पित कर देईं | अइसे करत
बहुत समय हो गईल एह बीच अंग्रेज इ समझें कि उनके सिपाही जंगल में जा के बिला जात
हवें आ जंगली जानवरन के शिकार हो जात हवें | धीरे-धीरे
अंग्रेजन के एह बात के पता चल गईल कि कवनो जानवर ना बल्कि इन्सान उनकर सिपाही सब
के मारत हवें, अंग्रेज जंगल के कोना-कोना
छान मरलें लेकिन बाबु साहब के ना पयिलें |अंग्रेज एक तरफ जायीं त
बाबु साहब दुसरे ओर चलीं जायीं, आखिर एगो व्यापारी के
मुखबिरी के चलते एक दिन बाबु बंधू सिंह जी धरा गईलें |
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बाबू बंधू सिंह स्मारक |
अंग्रेज
उहाँ के पकड़ के अदालत में ले गयिने जहवां उहाँ के फंसी के सजा सुनावल गईल, १२ अगस्त
१८५७ के उहाँ के गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर सबके सामने फांसीं पर लटकावे के
परयास कईल गईल | जइसे ही
जल्लाद खटका खींचे उ खिंचाईबे न करे, पर जब
उहाँ के हटा के बालू के बोरा लटका के दोबारा कोशिश कईल जा त खटका खिंचा जा और बोरा
रसरी से लटक जा, लेकिन बाबु साहब के जब खड़ा
कर के खींचल जा त खिचाईबे न करे | ६ बार
उहाँ के हटा के बालू के बोरा लटका के कोशिश कईल गईल लेकिन हर बार उहे हाल | अंग्रेज
परेशान पूरा जनता सामने खड़ा होके हंसत रहे और बाबु बंधू सिंह जी फंसी के तख्ता पर
खड़ा होके मने-मन मुसकुरात रहनी, जब सातवीं बार उहाँ के फंसी
के रसरी से बांधल गईल त उहाँ के खुद अपने इष्ट माता तरकुलहाँ देवी से विनती कईलीं
की " हे माँ अब हमार मन एह दुनिया से उब गईल बा, एह लिए
अब हमके अपने पास बोला लीं " | अउर एह
बार में खटका खुल गईल और बाबु साहब फंसी पर झूल गईलीं | कहल जाला
कि जवने समय बाबु साहब फंसी पर लटकनि ओही समय देवी माँ के पिंडी के पास खड़ा तरकुलन
में से एगो तरकुल के उपरी भाग टूट गईल अउर ओम्मे से खून बहे लागल, एह खून
से पास में बहत नदी के पूरा पानी लाल हो गईल |
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माता का मन्दिर |
आजादी के
बाद आज भी तरकुलहाँ देवी के मान्यता अउर बढ़ गईल, अब उहाँ
बाबु बंधू सिंह के याद में एगो स्मारक बना दिहल गईल बा लेकिन उपेक्षा के कारन ओहू
के हालत ख़राब बा | तरकुलहाँ
देवी के आशीर्वाद आज भी एह क्षेत्र में बसल लोगन के साथ बा | तरकुलहाँ
देवी या
आकाशकामिनी माता आज भी गछवाहा
समुदाय के इष्ट
देवी हई जवन की आज भी तरकुल से ताड़ी उतारे के काम करे ला | तरकुलहाँ
देवी मंदिर के दुसर विशेषता इहाँ मिले वाला मीट के परसादी हवे | बलि
चढ़वले के जवन परंपरा बाबू बंधू सिंह शुरू कईले रहनी उ परंपरा आज भी इहाँ जियत बा | आज बलि
इन्सान के ना बल्कि बकरा के चढ़ेला, बकरा के
बलि चढ़ा के माटी के बर्तन में पका के साथ में लिट्टी के साथे परसादी के रूप में
दिहल जाला | इहाँ के एगो और विशेषता हवे
कहल जाला की मीट वाला परसादी के घरे ना ले जाए के चाही अगर बच जात बा त ओही जा
गरीबन के खिया देवे के चाहीं अगर घरे लावे के कोशिश करल जाई त उ घरे तक ना पहुच
पायी | अगर आप अपने घर से कुछ नईखी
ले गईल तब्बो घबराईं ना इहाँ आपके माटी के बर्तन, गोइंठा, तेल से
लेके गरम मसाला तक हर चीज मिल जाई | इहाँ के
बलि प्रथा के बंद करावे के खातिर कोर्ट में केस चलत बा | साल में
एक बार इहाँ चइत रामनवमी से लेके सावन के नाग पंचमी तक मेला लागेला, अउर हाँ
मन्नत पूरा होखले पर घंटी बंधले के रिवाज ह जवने वजह से पूरा मंदिर में जगह जगह पर
घंटी बंधल मिल जाई | इहाँ
सोमवार और शुक्रवार के बहुत भीड़ होला |
जय माँ
तरकुलहीं देवी
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